ओऊम् नमः शिवाय्! 33 करोड़ नहीं 33 कोटी देवी देवता हैँ हिंदू धर्म में


ॐ नमः शिवाय ।।
शिव डमरू बजाते और मौज आने पर नृत्य भी करते हैं, यह प्रलयंकर की मस्ती का प्रतीक है, व्यक्ति उदास, निराश और खिन्न-विपन्न बैठकर अपनी उपलब्ध शक्तियों को न खोयें, पुलकित-प्रफुल्लित जीवन जियें, शिव यही करते हैं, इसी नीति को अपनाते हैं, उनका डमरू ज्ञान, कला, साहित्य और विजय का प्रतीक है, यह पुकार-पुकारकर कहता है कि शिव कल्याण के देवता हैं।
उनके विचारों रूपी खेत में कल्याणकारी योजनाओं के अतिरिक्त और किसी वस्तु की उपज नहीं होती, विचारों में कल्याण की समुद्री लहरें हिलोरें लेती हैं, उनके हर शब्द में सत्यम्, शिवम् की ही ध्वनि निकलती है, डमरू से निकलने वाली सात्त्विकता की ध्वनि सभी को मंत्रमुग्ध सा कर देती है, और जो भी उनके समीप आता है अपना सा बना लेता है।
शिव का आकार लिंग स्वरूप माना जाता है, उसका अर्थ यह है कि सृष्टि साकार होते हुए भी उसका आधार आत्मा है, ज्ञान की दृष्टि से उसके भौतिक सौंदर्य का कोई बड़ा महत्त्व नहीं है, मनुष्य को आत्मा को उपासना करनी चाहिये, उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, सांसारिक रूप, सौंदर्य और विविधता में घसीटकर उस मौलिक सौंदर्य को तिरोहित नहीं करना चाहिये।
गृहस्थ होकर भी पूर्ण योगी होना शिव जी के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है, सांसारिक व्यवस्था को चलाते हुए भी वे योगी रहते हैं, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, वे अपनी धर्मपत्नी को भी मातृ-शक्ति के रूप में देखते हैं, यह उनकी महानता का दूसरा आदर्श है, ऋद्धि-सिद्धियाँ उनके पास रहने में गर्व अनुभव करती हैं, यहाँ उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि गृहस्थ रहकर भी आत्मकल्याण की साधना असंभव नहीं, जीवन में पवित्रता रखकर उसे हँसते-खेलते पूरा किया जा सकता है।
शिव के प्रिय आहार में एक सम्मिलित है- भांग, (भंग) अर्थात विच्छेद-विनाश, माया और जीव की एकता का भंग, अज्ञान आवरण का भंग, संकीर्ण स्वार्थपरता का भंग, कषाय-कल्मषों का भंग, यही है शिव का रुचिकर आहार, जहाँ शिव की कृपा होगी वहाँ अंधकार की निशा भंग हो रही होगी और कल्याणकारक अरुणोदय वह पुण्य दर्शन मिल रहा होगा।
शिव को पशुपति कहा गया है, पशुत्व की परिधि में आने वाली दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण करना पशुपति का काम है, नर-पशु के रूप में रह रहा जीव जब कल्याणकर्त्ता शिव की शरण में आता है, तो सहज ही पशुता का निराकरण हो जाता है और क्रमश: मनुष्यत्व और देवत्व विकसित होने लगता है।
महामृत्युञ्जय मंत्र में शिव को त्र्यंबक और सुगंधि पुष्टि वर्धनम् गाया है, विवेक दान को त्रिवर्ग कहते हैं, ज्ञान, कर्म और भक्ति भी त्र्यंबक है, इस त्रिवर्ग को अपनाकर मनुष्य का व्यक्तित्व प्रत्येक दृष्टि से परिपुष्ट व परिपक्व होता है, उसकी समर्थता और संपन्नता बढ़ती है, साथ ही श्रद्धा, सम्मान भरा सहयोग उपलब्ध करने वाली यशस्वी उपलब्धियाँ भी करतलगत होती हैं, यही सुगंध है।
गुण कर्म स्वभाव की उत्कृष्टता का प्रतिफल यश और बल के रूप में प्राप्त होता है, इसलिये तनिक भी संदेह नहीं, इसी रहस्य का उद्घाटन महामृत्युञ्जय मंत्र में विस्तारपूर्वक किया गया है, देवताओं की शिक्षाओं और प्रेरणाओं को मूर्तमान करने के लिए अपने ही हिंदू समाज में प्रतीक पूजा की व्यवस्था की गई है, जितने भी देवताओं के प्रतीक हैं उन सबके पीछे कोई न कोई संकेत भरा पड़ा है, प्रेरणायें और दिशाएँ भरी पड़ी हैं।
अभी भगवान शंकर का उदाहरण दे रहा था मैं आपको और यह कह रहा था, कि सारे विश्व का कल्याण करने वाले शंकर जी की पूजा और भक्ति के पीछे जिन सिद्धांतों का समावेश है, हमको उन्हें सीखना चाहिये था, जानना चाहिये था और जीवन में उतारना चाहिए था, लेकिन हम उन सब बातों को भूलते हुए चले गयें और केवल चिह्न−पूजा तक सीमाबद्ध रह गये।
विश्व-कल्याण की भावना को भी हम भूल गये जिसे 'शिव' शब्द के अर्थों में बताया गया है, शिव' माने कल्याण, कल्याण की दृष्टि रखकर के हमको कदम उठाने चाहिये और हर क्रिया-कलाप एवं सोचने के तरीके का निर्माण करना चाहिये, यह शिव शब्द का अर्थ होता है, सुख हमारा कहाँ है? यह नहीं, वरन कल्याण हमारा कहाँ है? कल्याण को देखने की अगर हमारी दृष्टि पैदा हो जाए तो यह कह सकते हैं कि हमने भगवान शिव के नाम का अर्थ जान लिया।
'ॐ नम: शिवाय' का जप तो किया, लेकिन 'शिव' शब्द का मतलब क्यों नहीं समझा, मतलब समझना चाहिये था और तब जप करना चाहिये था, लेकिन हम मतलब को छोड़ते चले जा रहे हैं और बाह्य रूप को पकड़ते चले जा रहे हैं, इससे काम बनने वाला नहीं है, हिंदू समाज के पूज्य जिनकी हम दोनों वक्त आरती उतारते हैं, जप करते हैं, शिवरात्रि के दिन पूजा और उपवास करते हैं, और न जाने क्या-क्या प्रार्थनायें करते-कराते हैं।
क्या वे भगवान शंकर हमारी कठिनाइयों का समाधान नहीं कर सकते? क्या हमारी उन्नति में कोई सहयोग नहीं दे सकते? भगवान को देना चाहिये, हम उनके प्यारे हैं, उपासक हैं, हम उनकी पूजा करते हैं, वे बादल के तरीके से हैं, अगर पात्रता हमारी विकसित होती चली जाएगी तो वह लाभ मिलते चले जाएँगे जो शंकर भक्तों को मिलने चाहिये।
जय महादेव!
ओऊम् नमः शिवाय्!
33 करोड़ नहीं 33 कोटी देवी देवता हैँ हिंदू धर्म में ;
कोटि = प्रकार ।
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते हैं ।
कोटि का मतलब प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता ।
हिंदू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उड़ाई गयी की हिन्दूओं के 33 करोड़ देवी देवता हैं और अब तो मुर्ख हिन्दू खुद ही गाते फिरते हैं की हमारे 33 करोड़ देवी देवता हैं...
कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिंदू धर्म में :-
12 प्रकार हैँ :-
आदित्य , धाता, मित, आर्यमा,
शक्रा, वरुण, अँशभाग, विवास्वान, पूष, सविता, तवास्था, और विष्णु...!
8 प्रकार हैं :-
वासु:, धरध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
11 प्रकार हैं :-
रुद्र: ,हरबहुरुप, त्रयँबक,
अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी,
रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।
एवँ
दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार ।
कुल :- 12+8+11+2=33 कोटी
यह बहुत ही अच्छी जानकारी है इसे अधिक से अधिक लोगों में बाँटिये और इस कार्य के माध्यम से पुण्य के भागीदार बनिये ।
👉 एक हिंदू होने के नाते जानना आवश्यक है ।
🙏अब आपकी बारी है कि इस जानकारी को आगे बढ़ाए
📜अपने भारत की संस्कृति
को पहचानें।
ज्यादा से ज्यादा
लोगों तक पहुचायें।
खासकर अपने बच्चों को बताए
क्योंकि ये बात उन्हें कोई दुसरा व्यक्ति नहीं बताएगा...
दो पक्ष-
कृष्ण पक्ष ,
शुक्ल पक्ष !
तीन ऋण -
देव ऋण ,
पितृ ऋण ,
ऋषि ऋण !
चार युग -
सतयुग ,
त्रेतायुग ,
द्वापरयुग ,
कलियुग !
चार धाम -
द्वारिका ,
बद्रीनाथ ,
जगन्नाथ पुरी ,
रामेश्वरम धाम !
चारपीठ -
शारदा पीठ ( द्वारिका )
ज्योतिष पीठ ( जोशीमठ बद्रिधाम )
गोवर्धन पीठ ( जगन्नाथपुरी ) ,
शृंगेरीपीठ !
चार वेद-
ऋग्वेद ,
अथर्वेद ,
यजुर्वेद ,
सामवेद !
चार आश्रम -
ब्रह्मचर्य ,
गृहस्थ ,
वानप्रस्थ ,
संन्यास !
चार अंतःकरण -
मन ,
बुद्धि ,
चित्त ,
अहंकार !
पञ्च गव्य -
गाय का घी ,
दूध ,
दही ,
गोमूत्र ,
गोबर !
पञ्च देव -
गणेश ,
विष्णु ,
शिव ,
देवी ,
सूर्य !
पंच तत्त्व -
पृथ्वी ,
जल ,
अग्नि ,
वायु ,
आकाश !
छह दर्शन -
वैशेषिक ,
न्याय ,
सांख्य ,
योग ,
पूर्व मिसांसा ,
दक्षिण मिसांसा !
सप्त ऋषि -
विश्वामित्र ,
जमदाग्नि ,
भरद्वाज ,
गौतम ,
अत्री ,
वशिष्ठ और कश्यप!
सप्त पुरी -
अयोध्या पुरी ,
मथुरा पुरी ,
माया पुरी ( हरिद्वार ) ,
काशी ,
कांची
( शिन कांची - विष्णु कांची ) ,
अवंतिका और
द्वारिका पुरी !
आठ योग -
यम ,
नियम ,
आसन ,
प्राणायाम ,
प्रत्याहार ,
धारणा ,
ध्यान एवं
समािध !
आठ लक्ष्मी -
आग्घ ,
विद्या ,
सौभाग्य ,
अमृत ,
काम ,
सत्य ,
भोग ,एवं
योग लक्ष्मी !
नव दुर्गा --
शैल पुत्री ,
ब्रह्मचारिणी ,
चंद्रघंटा ,
कुष्मांडा ,
स्कंदमाता ,
कात्यायिनी ,
कालरात्रि ,
महागौरी एवं
सिद्धिदात्री !
दस दिशाएं -
पूर्व ,
पश्चिम ,
उत्तर ,
दक्षिण ,
ईशान ,
नैऋत्य ,
वायव्य ,
अग्नि
आकाश एवं
पाताल !
मुख्य ११ अवतार -
मत्स्य ,
कच्छप ,
वराह ,
नरसिंह ,
वामन ,
परशुराम ,
श्री राम ,
कृष्ण ,
बलराम ,
बुद्ध ,
एवं कल्कि !
बारह मास -
चैत्र ,
वैशाख ,
ज्येष्ठ ,
अषाढ ,
श्रावण ,
भाद्रपद ,
अश्विन ,
कार्तिक ,
मार्गशीर्ष ,
पौष ,
माघ ,
फागुन !
बारह राशी -
मेष ,
वृषभ ,
मिथुन ,
कर्क ,
सिंह ,
कन्या ,
तुला ,
वृश्चिक ,
धनु ,
मकर ,
कुंभ ,
कन्या !
बारह ज्योतिर्लिंग -
सोमनाथ ,
मल्लिकार्जुन ,
महाकाल ,
ओमकारेश्वर ,
बैजनाथ ,
रामेश्वरम ,
विश्वनाथ ,
त्र्यंबकेश्वर ,
केदारनाथ ,
घुष्नेश्वर ,
भीमाशंकर ,
नागेश्वर !
पंद्रह तिथियाँ -
प्रतिपदा ,
द्वितीय ,
तृतीय ,
चतुर्थी ,
पंचमी ,
षष्ठी ,
सप्तमी ,
अष्टमी ,
नवमी ,
दशमी ,
एकादशी ,
द्वादशी ,
त्रयोदशी ,
चतुर्दशी ,
पूर्णिमा ,
अमावास्या !
स्मृतियां -
मनु ,
विष्णु ,
अत्री ,
हारीत ,
याज्ञवल्क्य ,
उशना ,
अंगीरा ,
यम ,
आपस्तम्ब ,
सर्वत ,
कात्यायन ,
ब्रहस्पति ,
पराशर ,
व्यास ,
शांख्य ,
लिखित ,
दक्ष ,
शातातप ,
वशिष्ठ !
आचार्य अनिल वर्मा
9811715366
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