#औधौगिक वास्तु
#वास्तुशास्त्र अर्थात #स्थापत्य का प्राचीन विज्ञान एक उपवेद
है। #वास्तुशास्त्र स्थापत्य और #निर्माण के विभिन्न पक्षों को मानव के सुख एवं कल्याण
से जोड़ता हैं और समन्वित करता है। वास्तु शास्त्र के आधार पर निर्मित भवन जीवन के #आध्यात्मिक
,भावात्मक एवं #भौतिक
पक्षों को सम्रद्ध करने मै सहायक होता है। ज्योतिष शास्त्र व्यक्ति के भविष्य की रूप
रेखा बनाने में सहायक है तो वास्तुशास्त्र उस योजना को एक बेहतर व्यावहारिक रूप प्रदान
करने में सहायक होता है। वास्तु शास्त्र का वैदिक विज्ञान व्यक्ति की ऊर्जा के साथ
समन्वित करके जीवन शैली की गुणवत्ता को बढ़ता है।
#वास्तुशास्त्र को स्थापत्य का #वैदिक विज्ञान कहा जा सकता है।
इसका सम्बन्ध ब्रह्माण्ड विज्ञान ,खगोल विज्ञान ,तत्त्व मीमांसा , भूगोल और भू-विज्ञान से भी है। ब्रह्माण्ड मै पृथ्वी के अलावा और ऐसे कई गृह है
जिनका हमारे जीवन पर गहरा असर पड़ता है /किसी भी निर्मित भवन के अलग -अलग छेत्रो का
सम्बन्ध अलग -अलग ग्रहो से होता होता है और ये गृह उन छेत्रो को विशेष रूप से प्रभावित
करते है। भूखंड और उस पर बने भवन मैं एक खास लय और सौंदर्य होता है जो प्रकृति के साथ
तरंगित होता है। खगोल शास्त्रीय पक्ष का सर्वाधिक उपयोग भवन निर्माण मे आयादि षड्वर्गो
की गणना द्वारा किया जाता है। भवन की लम्बाई चौड़ाई और अन्य अनुपात की गणना इन्ही के
अनुसार की जानी चाहिए क्योकि इस प्रकार निर्मित भवन निवासियों को उत्तम स्वस्थ्य ,धन -सम्पदा और समृद्धि प्रदायक होते है । वास्तु की तत्वमीमांसा पक्ष मैं वास्तु पुरुष मंडल योजना का अत्यंत महत्व है। वास्तु
पुरुष की परिकल्पना से यह समझने मैं मदद मिलती है क़ि #भूखंड #भूमि का निर्जीव टुकड़ा मात्र
नहीं है बल्कि एक जीता-जागता ,साँस लेता जीव है ।
#वास्तु के #भौगोलिक और #भूवैज्ञानिक तथ्यों को भूमि और उसके आसपास
के वातावरण के अध्ययन द्वारा समझा जा सकता है। भूमि की महक, #स्पर्श, #स्वाद और रंग की जांच से वास्तु के भूवैज्ञानिक पक्षों की जानकारी
प्राप्त की जा सकती है।
संक्षेप मे कहा जा सकता है की #वास्तुशास्त्र कला भी है और #विज्ञान
भी और उसका उद्देश्य मानवीय आवास को न केवल टिकाऊ और सौंदर्यपूर्ण बनाना है बल्कि उसमे रहने वालो को सुख- समर्धि,
शांति ,और धन-वैभव प्रदान करना भी
है।
#वास्तुपुरुष
भारतीय दर्शन की जड़ें #वैदिक चिंतन एवं परम्परा में मिलती है। #वास्तु #विज्ञान मे #स्थापत्य कला ,#मूर्ति #कला और चित्र कला भी समाविस्ट है। वास्तु का वैदिक देव वास्तोष्पति
है। पौराणिक कल मे वैदिक कल के #वास्तोष्पति को #वस्तुरक्षक ,वास्तुनार ,वास्तुभूत या #वास्तुपुरुष आदि कई नामों से सम्बोधित
किया गया। वास्तुपुरुष को भूमि पर बनाई जाने वाली संरचना का देवता माना जाता है। अथर्वेद
को वास्तु विज्ञानं का उत्स मन जाता है। गृहस्वामी वास्तोष्पति को #अथर्वेद में असाधारण
महत्व दिया गया है और उसकी कई स्तुतिया गई गयी है। #वास्तोष्पति #यजुर्वेद में रूद्र
है , अमरकोश में वह इंद्र
है। ऋग्वेद में वास्तोष्पति घर का संरक्षक
हैं। #अग्नि , #सोम,इंद्र , प्रजापति और अन्य देवताओ का
आवासदाता के रूप में आह्वान किया जाता हैं। सभी वसु सभी देवी शक्तिया #वास्तुमंडल में
विद्यमान हैं।
मंडूक #उपनिषद में कहा गया हैं कि #वास्तुपुरुष व्यक्ति का अंतरतम
स्व हैं। अग्नि उसका सिर है ,सूर्य और चन्द्रमा उसके नेत्र है ,चतुर्थाँश उसके कण है उसका प्रकटीकरण उसकी आवाज है ,वायु उसकी स्वांश है जगत उसका
ह्रदय है और पृथ्वी उसके पैर हैं।
वास्तुपुरुष सभी भूखंडों एवं संरचनाओं का देवता है और उसका पूजन
करना उसके नाम की आहुति देना अनिवार्य होता हैं। बदले में #वास्तुपुरुष वह रहने वालो
की सुख शांति की रक्षा करता हैं। वास्तुपुरुष के विभिन्न शरीरांगो मे पेंतालिस देवता का निवास बताया गया है
#वस्तुमण्डल के अनुसार वास्तुपुरुष का सिर #ईशान में और पैर #नैऋत्य
में है और वह भूमि मैं अधोमुख स्थित है। वास्तुपुरुष की स्थिति भूखंड या भवन के आकार
के महत्व को दर्शाती है। वास्तुपुरुष पूर्ण वर्गाकार मैं स्थित है इसलिए वर्गाकार #वास्तुशास्त्र
के लिए सर्वश्रेष्ठ है।
वास्तुपुरुष का वर्णन करते हुए मयमतम का कहना है की प्रत्येक
मानवीय आवास में सौभाग्य और दुर्भाग्य के लिए वास्तुपुरुष ही जिम्मेदार हैं। यही कारन है की बुद्धिमान मनुष्यो को
उसके शरीरांगो को उत्पीड़ित नहीं करना चाहिए अन्यथा गृह स्वामी को असंख्य कस्ट झेलने
पड़ सकते हैं।
वास्तु पुरुष के ओचित्य
के समझने के लिए वास्तु मंडल ,#ब्रह्मस्थान और #मर्मस्थान की
संकल्पना को समझना आवश्यक है। वास्तु मंडल किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए आधार आकृति
है। यह कहा जाता है कि वास्तु केनवस है , पुरुष रूप है और
मंडल आधारभूत व्यवहारिक स्वरुप है। प्राचीन पाठों मैं बत्तीस प्रकार के मंडलों का उल्लेख
है। मंडल का अनुकूल आकार वर्गाकार है। मध्य बिंदू को ब्रह्मनाभी या ब्रह्मा बिंदू कहा
जाता है। मंडल कई वर्गों या ग्रिडों में विभाजित होता है जिन्हे पद कहा जाता है। मनुष्यो के रहने के लिए सबसे उपयुक्त मंडल
या भवन योजना परमशयिका मंडल है। प्रत्येक दिशा नौ समवर्गो मे विभाजित होती है इस प्रकार
पूरी संरचना के कुल ८१ भाग होते है। मंडल या भवन योजना पर वास्तुपुरुष की आकृति को
आरोपित करना वास्तु पुरुष मंडल कहलाता है।
#वास्तुपुरुष नियोजित छेत्र को इस प्रकार घेरे
होता है कि पुरे भूखंड में समां सके और वर्गों के पेंतालिस देवी -देवता #वास्तुपुरुष
के विभिन्न शरीरांगो के मुख्या देवी-देवता बन जाते है। चौसठ ,इक्यासी या सौ पद के #वास्तुमंडल में भी सभी पेंतालिस देवों का वास होता हैं केवल उनके लिए निर्धारित सीमा
भिन्न होती है परन्तु योजना में उनकी सापेक्ष स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता। मध्य
भाग का स्वामी हमेशा ब्रह्मा होता है। #वास्तुपुरुष मंडल मई ब्रह्मा सबसे महत्वपूर्ण
देवता है क्योकि वह सार्वाधिक पदो का स्वामी होता है। परमशयिका मंडल में ब्रह्मा मध्य
के नौ पदों का स्वामी होता है। ब्रह्मा स्थान वास्तु पुरुष की नाभि के आसपास का छेत्र
होता है। वास्तुपुरुष का उदर ,गुप्तांग और जंघाएँ भूखंड के ब्रह्मा स्थान में पड़ती है। ब्रह्मा
स्थान संपूर्ण जाग्रति का केंद्र है। ब्रह्मरंध्र तीन मूल गुणों
-सत्व ,रजस और तमस का स्रोत्र है। और मयमतम
के अनुसार #ब्रह्मास्थान के बाद के तीन छेत्र देव ,मनुष्य और पिशाच छेत्र है। इनका संबंध #सतोगुण ,रजोगुण और तमोगुण से होता है।
भवन संरचना आमतौर पर देव और मनुष्य छेत्रो
में सर्वोत्तम मानी जाती है। पिशाच छेत्र को भवन के चारो और खुला छोड़ा जाता है।
#उत्तर से #दक्षिण और #पूर्व से #पश्चिम को जोड़ने वाली रेखाओं को
क्रमशः नाड़ी और वंश कहा जाता है। वास्तु पुरुष के भीतरी उपांग जैसे नाड़ी ,अनुवंश का सम्बन्ध वास्तु पुरुष
के सूक्षम शरीर से है। यह ऊर्जा धाराएं है जैसे नसे और धामनिया पुरे शरीर में होती है। वास्तु शास्त्रो
में यह निर्देश मिलता है कि वास्तु पुरुष के इन भीतरी भागो में कोई वेध नहीं होना चाहिए।
जिस प्रकार मानव शरीर में नसों और धमनियों का अन-अवरूद्ध रहना मानसिक एवं शारीरिक स्वस्थ्य के लिए आवश्यक है उसी प्रकार भवन निर्माण
से भवन में विद्यमान #सूक्षम #ऊर्जा के प्रभाव में कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए।
इसके अतिरिक्त अधिकांश पद - देवताओ का सम्बन्ध #सौर-मंडल और वायुमंडल
से है
इस रंगपटल पर दोनों और दो अदृश्य छेत्र हैं जिन्हे पराबैंगनी
और अवरक्त छेत्र कहा जाता है। सूर्य के रंगपटल के पराबैंगनी और ठन्डे रंग मधुर और आध्यात्मिक
रंग होते है। पराबैंगनी किरणे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करने ,एवं ग्रन्धि-किर्याओं को स्वस्थ
रखने में प्रभावी होती हैं ,वास्तु शास्त्र के अनुसार प्रातःकालीन सूर्य की किरणों से अधिक से अधिक लाभ प्राप्त
करने के लिए घर के #उत्तरी-पूर्वी छेत्र में समय बिताना अच्छा मन गया है। उत्तरी-पूर्वी
छेत्र की विशेषताओं के कारण आध्यात्मिक उत्थान के लिए इस छेत्र में पूजन स्थल बनाने
का सुझाव दिया गया है। इस छेत्र मैं सूर्य की किरणों का अधिक से अधिक शुभ फल प्राप्त करने के लिए ही इस छेत्र को
अधिक से अधिक खुला ख़ाली रखने का सुझाव दिया
गया है।
लाल रंग का अदृश्य छेत्र तापीय छेत्र या उष्ण छेत्र है इसे अवरक्त
छेत्र कहा जाता है। यह छेत्र प्रत्यक्ष रूप से धुप मुक्त होता है परन्तु यह सबसे अधिक
तापमान वाला छेत्र होता है। वास्तु शास्त्र मई इस छेत्र को #आग्नेय या #दक्षिण-पूर्वी
छेत्र कहा जाता है। अवरक्त रंग मे ऊष्मा एवं जीवन क्षमता के चिकित्सीय होते गुण है। कहा जाता हैं कि अवरक्त चिकित्सा सर्दी से होने वाले रोगो जैसे पुराने जोड़ो के
दर्द ,पीठ के दर्द आदि मैं राहत प्रदान करती है। यह स्वस्थ्यकारी
क्षमता को बढ़ाकर स्वस्थ्य लाभ प्रदान करती है ,वास्तु अनुसार रसोईघर
दक्षिण-पूर्वी छेत्र मैं बनाना अच्छा माना गया हैं।
आधुनिक विज्ञानं मै सूर्य रश्मियों के सात भाग है जिन्हे रंगो
की विभिन्ता से पहचाना जाता है। हमारा ऋषि-मुनियो ने सूर्य के सात रंगो को सूर्य के
सप्त अश्व ,सप्तशव आदि नमो से पुकारा है।
बल्कि उनको सूर्य की दैनिक गति का भी ज्ञान था। वास्तु पुरुष मंडल मैं सभीदेवी- देवताओं
के विशिस्ट गुण हैं। पूर्वी क्षितिज में सूर्योदय से लेकर पश्चिम मैं सूर्यास्त होने
तक सूर्य की पूरी यात्रा के दौरान सूर्य की किरणों की तीक्ष्णता और संरचना बदलती रहती
हैं। वास्तु मई भवन के विनिर्दिष्ट भागों एवं ग्रिडों में दरवाजे ,खिड़कियों की स्थिति और विभिन्न कक्षों के स्थान का निर्देश होता
है तो इसी सूर्य की स्थिति के ज्ञान का प्रयोग किया जाता हैं।
#वास्तु का सम्बन्ध आठ #दिशाओं अर्थात चार मुख्य दिशाओं -उत्तर
,पूर्व,दक्षिण , और पश्चिम तथा चार कोणीय दिशाओं
या विदिशाओं-उत्तर-पूर्व(ईशान ),दक्षिण-पूर्व(आग्नेय), दक्षिण-पश्चिम(नैऋत्य), और उत्तर-पश्चिम(वायव्य) से है। मध्य भाग को ब्रह्मा स्थान कहा जाता है।
#उत्तर -उत्तर का प्रधान देवता कुबेर है जो धनसंपदा एवं समृद्धि का स्वामी है। ज्योतिष
की दृष्टि से बुध उत्तर दिशा का स्वामी है। उत्तरी भाग खुला होने पर धन सम्पदा प्रदान करता है। किसी भी
व्यावसायिक ऊधम का मुख्या उद्देश्य लाभा कामना होता है अतः हर प्रकार के कारोबार के
लिए उत्तर दिशा सबसे महत्वपूर्ण दिशा होती है। बुध गृह व्यवसाय और सभी प्रकार के वाणिज्यिक संरचना के लिए यह
आवश्यक है कि उत्तर की और अधिक से अधिक खुला स्थान रखा जाये जिससे कुबेर का शुभ आशीर्वाद
मिलता रहे और लक्ष्मी आती रहे।
#पूर्व - पूर्व का सम्बन्ध इंद्रा देव से है। यहाँ सूर्य का उदय होता है। पूर्व वंश वृद्धि
की दिशा है। किसी भी संरचना का निर्माण करते समय पूर्व में खुला स्थान छोड़ा जाना चाहिए।
यह प्रतिष्ठान के प्रधान को दीर्घायु प्रदान करता है। पूर्व दिशा नाम ,यश ,और सफलता प्रदान करने वाली
होती है। किसी भी व्यावसायिक ऊधम की छवि अच्छी बनाने के लिए पूर्व दिशा की शुभ तरंगों
का अन अवरूद्व होना अनिवार्य है। मानव संसाधन प्रबंधक या कार्मिक विभाग पूर्व मैं होना
चाहिए।
#पश्चिम - पश्चिम दिशा का सम्बन्ध वरुण देव से है। ज्योतिष की दृष्टि से इस दिशा का स्वामी
शनि है। यह दिशा कारोबार या नौकरी में सफलता ,गौरव ,यश और सौभाग्य प्रदान करती है।
#दक्षिण - दक्षिण दिशा का प्रधान देवता यम है। निर्माण कार्य यदि वास्तुशास्त्र के सिद्धान्तो
के अनुसार किया जाये तो दक्षिण दिशा सफलता सुख एवं शांति प्रदान करती है।
#ईशान -(#उत्तर-पूर्व) -यह उत्तर और पूर्व के बीच का भाग होता है। यह जल छेत्र होता है। इस छेत्र के
स्वामी शिव हैं। इस छेत्र में कुआँ या तालाब ,बोरवेल का निर्माण शुभ फल देने वाला होता है। भवन
का ईशान कोण तथा भवन में बने सभी कमरों के ईशान छेत्र को हमेशा साफ़ सुथरा और निर्बाध
रखा जाना चाहिए जिससे कोई भी कस्टकारी परिणाम न हो। किसी भी उद्योग ,दुकान ,शोरूम या किसी अन्य व्यवसायिक
स्थापना की उत्तर -पूर्वी दिशा को सशक्त करने से उत्पादन की गुणवत्ता में ,ऊधम की छवि में और सुख -स्मृद्धि
में वृद्धि होती है।
#आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) -यह दक्षिण और पूर्व दिशाओं के बीच का भाग होता है। यह अग्नि छेत्र है और अग्नि
इसका प्रधान देवता है। दक्षिण-पूर्व का नियंता गृह शुक्र है। पेंट्री/केन्टीन दक्षिण-पूर्वी
दिशा में बनाई जानी चाहिए। यह छेत्र यदि सशक्त हो तो सफलता और ऊच्च सामाजिक एवं व्यवसायिक
प्रतिष्ठा प्रदान करता है। अग्नि ऊर्जा का प्रतिनिधि है और हमारी कार्यक्षमता को प्रभावित
करता है। कार्यस्थल में दोषमुक्त दक्षिण-पूर्वी छेत्र कर्मचारियों को अभिप्रेरित एवं
ऊर्जावान बनता है। दक्षिण-पूर्वी छेत्र के दोषयुक्त होने पर कर्मचारी आलसी और प्रेरणा
विहीन हो जाते है और कर्मचारियों व् श्रमिको सम्बन्धी कई तरह की समस्याएं खड़ी हो जाती
है।
#नेऋत्य (दक्षि-पश्चिम)-यह दक्षिण और पश्चिम के बीच का भाग है। इस दिशा पर निऋति/पूतना का अधिपत्य है।
ज्योतिष की दृष्टि से दक्षिण-पश्चिम राहु की दिशा होती है। पृथ्वी तत्त्व की प्रधानता
होने से दक्षिण-पश्चिम भाग हमेशा ऊँचा और भरी होना चाहिए। सेप्टिक टैंक ,पानी के टैंक ,बोरिंग ,शौचालय आदि इस दिशा मई नहीं बनाने चाहिए। पृथ्वी छेत्र सभी प्रकार
की विषमताओं से जूझने की क्षमता प्रदान करता है। यह दृढ निश्चय ,लगन ,तर्क शक्ति और व्यवहारिक बुद्धि
तथा सफलता प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा शक्ति प्रदान करता है। प्रतिष्ठान के मालिक ,विभागाध्यक्ष एवं उच्चाधिकारियों को दक्षिण -पश्चिम छेत्र प्रयोग
करना चाहिए।
#वायव्य (उत्तर-पश्चिम)- यह उत्तर और पश्चिम
दिशाओं के बीच का भाग है। यह वायु छेत्र है। ज्योतिष के अनुसार चन्द्रमा वायव्य दिशा
के स्वामी है। वायु और चन्द्रमा दोनों तेज गति से संचार करते हैं। इस छेत्र की गतिशील
और तीव्रगामी ऊर्जाओं का सदुपयोग यहाँ संचार के आधुनिक उपकरणों और बिक्री के लिए तैयार
माल को रखने से किया जा सकता है। इस छेत्र का सम्बन्ध सम्बन्धियों ,मित्रो या शत्रुओं से होता है। व्यावसायिक एवं कारोबारी वास्तु
में इस छेत्र का सम्बन्ध व्यावसायिक एवं साझीदारों से होता है। यह संचार माध्यमो का
भी प्रतिनिधि होता है। यदि वायव्य दोष रहित हो तो मित्रो और व्यवसायिक सहयोगी सहायक
सिद्ध होते है।
#वास्तु के मूलाधार - #पंचमहाभूत --
सम्पूर्ण सृष्टि पांच मूल तत्वों से बानी है ,पृथ्वी ,जल , अग्नि ,वायु , और आकाश। हमारा शरीर भी प्रकृति
के इन पांच मूल तत्वों से बना है। ये पंचमहाभूत हमारी पंचेंद्रियो -घ्राण ,
स्वाद ,श्रवण , स्पर्श , और दृष्टि से सम्बंधित है।
व्यक्ति के बाहय और आंतरिक वास्तु में किसी भी प्रकार का असंतुलन अप्रिय स्थितियाँ
पैदा कर देता है। वास्तु हमें जीवन में पंचमहाभूतों के साथ संतुलन और सांमजस्य बनाये
रखना सिखाता है।
#पृथ्वी --पृथ्वी के साथ मानव जाती का नैसर्गिक और भावनात्मक सम्बन्ध है। पृथ्वी सूर्य
के चारों और घूमती है और इसमें गुरुत्वाकर्षण और चुंबकीय बल होता है। वैज्ञानिकों ने
यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी एक वृहदाकार चुम्बक है जिसके दो ध्रुव हैं -उत्तर ध्रुव
और दक्षिण ध्रुव। यह भी सिद्ध किया जा चूका है कि मानव शरीर एक चुम्बकित की जा सकने
वाली चीज है क्योकि रक्त में भारी प्रतिशत में लोह तत्त्व विद्यमान होता है। जैसा की
सर्वविदित है चुम्बक के विपरीत ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते है और सामान चुंबकीय
ध्रुव एक दूसरे को विकर्षित करते है। सोते समय सिर को दक्षिण दिशा में रखने का #वास्तु #सिद्धांत पृथ्वी
के #चुंबकीय गुण पर आधारित है। वास्तु मै भूखंड की मिटटी के निरिक्षण ,स्थल के चयन ,उनके अनुसार ढलान और माप का
भी विचार किया जाता है।
पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा तत्त्व है जिसमे सभी पांच गुण मिलते है
-शब्द , स्पर्श ,रूप ,रास और गंध और यह तत्त्व हम
पर अधिकतम प्रभाव डालता है।
किसी भी भवन की दक्षिण -पश्चिम दिशा में पृथ्वी तत्त्व प्रधान
होता है। यह तत्त्व हमें सभी विपरीत परिस्थितियों का दृढ़ता से सामना करने की शक्ति
देता है और लक्ष्य की दृढ़ता प्रदान करता है। दक्षिण -पश्चिम छेत्र को संगठन के मालिकों
,प्रबंधक निदेशकों
और सर्वोच्च अधिकारियों के लिए उपयुक्त माना गया है।
#जल --पृथ्वी के बाद
सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्त्व है। जल में सामान्यतः चार गुण मिलते है -शब्द , स्पर्श ,रूप ,एवं रस। इन चारों में से जल का अपना विशेष गुण शीतल स्पर्श है।
पञ्च तत्वों में से हमारे शरीर में इस तत्त्व की मात्रा सबसे अधिक है क्योंकि हमारे
शरीर का अस्सी प्रतिशत से अधिक और पृथ्वी की सतह का दो-तिहाई भाग जल है। किसी भवन का
नक्शा तैयार करते समय कुंओ ,बोरिंग ,पानी की टंकियों जैसे जल श्रोत्र कहाँ बनाये जाएँ इसके बारे
में वास्तुशास्त्र में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की गई है। जल तत्त्व से इष्टतम लाभ
प्राप्त करने की निकासी ,सेप्टिक टैंक ,सीवर,नालिया आदि का स्थान सावधानीपूर्वक
तय किया जाता है। डेयरी फार्मिंग ,बोतल बंद पेय ,खनिज जल संयंत्रों ,लॉन्ड्रियो ,शिपिंग और जल प्रोद्योगिक प्रतिष्ठानो जैसे द्रव से जुड़े व्यवसायों
के लिए उत्तर-पूर्व दिशा उपयुक्त मानी गयी है।
#अग्नि -सूर्य ऊर्जा और प्रकाश का सर्वाधिक जीवंत श्रोत्र है। सूर्य को सृष्टि की आत्मा
मन गया है। पृथ्वी की गति के सापेक्ष में सूर्य की गति से दिन और रात बनते है। ऋतुओ
में परिवर्तन होता है। अग्नि तत्त्व में तीन गुण मिलते है -शब्द ,स्पर्श ,और रूप। यह तत्त्व हमारी श्रवणेंद्रिय
,स्पर्शेंद्रिय और
दर्शनेन्द्रिय से जुड़ा है। सूर्य के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती
है।
सूर्य की किरणों को सात जमा दो रंगो में विभाजित किया जाता है।
उत्तर-पूर्व की समवर्ती पूर्वी दिशा में अत्यधिक उपयोगी पराबैंगनी किरणों से लेकर सूर्य
की किरणें फिर बैंगनी ,नील ,नीले ,हरे ,पीले ,नारंगी ,और लाल तथा दक्षिण-पूर्व में
अवरक्त किरणों में विभाजित हो जाती है। सूर्य के वर्ण-पटल के बैंगनी और ठन्डे रंगो
का शरीर पर हितकारी ओर सुखद प्रभाव पड़ता है और इसलिए उत्तर-पूर्व में खुला स्थान रखना
उपयुक्त मन गया है। जब ये किरणें जल से मिलती है तो वे और भी लाभकारी हो जाती है उत्तर-पूर्व
दिशा में जल श्रोत्र रखना इसलिए उपयुक्त मन गया है। उत्तर -पूर्व दिशा में ऊंचा निर्माण
इस दिशा को अवरूद्व करता है। इस दिशा मई शौचालय का निर्माण भी निषिद्ध है।
दोपहर के बाद शाम को सूर्य की नुकसानदायक अवरक्त किरणों से बचा
जाना चाहिए। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण दिशा में ऊँचे और बड़े वृक्ष लगाना उपयुक्त
मन गया है ताकि सूर्य की नुकसानदायक किरणों को अवरुद्ध किया जा सके।
अग्नि तत्त्व विकास और उपक्रमण के लिए ऊर्जा और आवश्यक प्रेरणा
प्रदान करता है। अग्नि तत्त्व से पूर्ण लाभ के अग्नि को उचित स्थापना और आग्नेय छेत्र
को सशक्त बनाकर किया जा सकता है।
#वायु -वायु हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक तत्त्व है। वायु तत्त्व में दो गुण है -शब्द
और स्पर्श। हमारी श्रवणेन्द्रिय और स्पर्शेंद्रिय वायु से सम्बंधित है। पृथ्वी पर वायु
नाइट्रोजन ,ऑक्सीजन ,
हीलियम। हाइड्रोजन जैसी विभिन्न
गैसो का मिश्रण है। ऑक्सीजन मानव के लिए अत्यावश्यक है और नाइट्रोजन वनस्पतियों की
वृद्धि के लिए अनिवार्य है। विभिन्न गैसों का सही प्रतिशत ,सही वायुमंडलीय दाब और आद्रर्ता का स्तर पृथ्वी पर
हर प्रकार के जीवन के लिए आवश्यक है ,भवन में वायु तत्त्व का संतुलन बनाये रखने के लिए वास्तुशास्त्र
में बताया गया है कि दरवाजे ,खिड़कियां ,रोशनदान कहा रखना उपयुक्त होगा ,बॉलकनी कहा बनाई जाये ,ईमारत की ऊंचाई कितनी रखी जाये
और पेड़-पौधे कहाँ-कहाँ लगाया जाये।
किसी भवन का वायु जोन या उत्तर -पश्चिम छेत्र उसमे रहने वालों को प्रेरणा ,ऊर्जा और उद्यमशीलता प्रदान
करता है। यह छेत्र सेल्समैन ,मार्किट एक्सक्यूटिव और मेडिकल रेप्रेसेंटेटिव के लिए उत्तम है।
#आकाश -वास्तुशास्त्र में आकाश को नैसर्गिक मूल तत्त्व का दर्ज दिया गया है ,आकाश अपरिमित और अनंत है। यह
हमारी श्रवणेंद्रिय से सम्बंधित है। किसी भवन में आकाश तत्त्व उसके केंद्रीय मध्य या
ब्रहमस्थान से सम्बंधित होता है। यह आवश्यक है की ब्रहमस्थान को खुला रखा जाये और वहाँ
अधिक सामान न रखा जाए। आकाश तत्त्व में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी विकास में बाधक होती
है। अपने कार्यालय ,घर या फैक्ट्री को अस्तव्यस्त
हालात में रखना अपने इर्द-गिर्द आकाश तत्त्व को ख़राब करता है। भवन में मूल तत्वों का
संतुलन हमें प्रकृति के बहुत नजदीक ले जाता है। जिससे संतुलन और सांमजस्य पैदा होता
है तथा जीवन में समृद्धि आती है।
#ग्रह और दिशाएँ -
नव गृह -सूर्य ,चन्द्र ,मंगल ,बुध ,बृहस्पति ,शुक्र ,शनि ,राहु और केतु भिन्न -भिन्न
दिशाओं के स्वामी है। इसी प्रकार दिशाओं के भी कुछ अधिष्ठाता देवता हैं जैसे धन का
देवता कुबेर उत्तर दिशा का अधिष्ठाता है। इसका विवरण निम्न प्रकार से है –
दिशाएँ ग्रह देवता
|
उत्तर बुध कुबेर
|
पूर्व सूर्य इन्द्र
|
दक्षिण मंगल यम
|
पशिम शनि वरुण
|
उत्तर-पूर्व बृहस्पति शिव (ईश)
|
दक्षिण-पूर्व शुक्र अग्नि
|
उत्तर-पश्चिम चन्द्र वायु
|
दक्षिण-पश्चिम राहु/केतु निरुति
|
#ग्रह , #व्यवसाय और #दिशाएँ -
#व्यावसायिकवास्तु में #ज्योतिष -शास्त्र का प्रयोग ,ग्रहों के कारकतत्व ,विभिन्न दिशाओं से संबद्ध ग्रह
,ग्रह और मूल तत्त्व
और विभिन्न व्यवसायों को इंगित करने वाले ग्रहों का ज्ञान विभिन्न दिशाओं से सम्बंधित
व्यवसाय की और संकेत करता है। किसी विशेष व्यवसाय को आरम्भ करने के लिए विशेष दिशा
में अभिमुख भूखंड का प्रयोग करना उपयोगी और हितकारी होगा। उदाहरण के लिए ,दक्षिण और दक्षिण-पूर्व भूखंडों
पर मंगल और शुक्र का प्रतिनिधित्व होता है और यहाँ प्रधान तत्त्व अग्नि होता है। इस
प्रकार के भूखंड ऐसे व्यवसाय जिनमे अग्नि का मुख्या तत्त्व के रूप में प्रयोग होता
है जैसे होटल ,बिजली के उपकरण ,भट्टियां ,जेनरेटर ,इन्वर्टर ,रेस्त्रां , और बेकरी की सफलता की और इंगित करता है ,चूँकि दक्षिण-पूर्व में शुक्र ग्रह का प्रतिनिधित्व
होता है इसलिए आग्नेय भूखंड में शुक्र द्वारा घोतक व्यवसाय जैसे परिधान ,वस्त्र ,ब्यूटी पॉर्लर ,इत्रशालाये ,सोने और बहूमूल्य रत्न विशेषतय
हीरें के आभूषणों के व्यवपारी ,शो बिज़नेस ,जैसे सिनेमा ,नृत्य ,नाटक फैशन की वस्तुओं
,कारों और अन्य वाहनों
सम्बन्धी व्यापर लाभकारी होंगे। ओषधि सम्बंधित व्यापार के लिए भूखंड का उत्तर -पूर्व
दिशा में अभिमुख होना लाभकारी है। महिलाओं से सम्बंधित समस्याओं या महिला समर्थन समूहों
से जुड़े व्यक्ति सशक्त दक्षिण-पूर्व दिशा के प्रभाव से अपार सफलता प्राप्त कर सकते
हैं।
दिशा ग्रह प्रतिनिधि ग्रह के
अनुसार
|
उत्तर बुध
|
ट्रेडिंग ,डीलिंग ,व्यवपारी
|
,बैंक ,लेखपरीक्षा ,बुक कीपिंग ,आर्किटेक्ट चार्टर अकाउंटेंट
|
,बुक शॉप ,बुक पब्लिशर
|
,स्टेशनरी ,पंसारी ,वित्त -कंपनी
|
पूर्व सूर्य ट्रेडर,डीलर ,व्यवपारी ,व्यवसायी
|
ओषधि ,ऊन ,उद्योग ,अनाज ,सोना
|
डिप्लोमेट ,मध्यस्था ,फोटोग्राफी
|
शेयर ,और स्टॉक दलाल
|
पश्चिम शनि ट्रेवल एजेंसियाँ
,फर्नीचर ,शोरूम
|
इमारती लकड़ी ,कृषि ,उत्पाद
|
खनन ,शिल्प ,जुताई ,सभी प्रकार
|
का श्रम ,जूता निर्माण ,फैक्ट्री
|
उद्योग ,प्रिंटिंग प्रेस ,हार्डवेयर
|
तेल रिफिायनरी ,खानें ,
|
इंजीनियरी फर्मे
,इस्पात और लोहे के
|
व्यवपारी
|
दक्षिण मंगल होटल ,विधुत उपकरणों के व्यवपारी
|
इस्पात और लोहे के उद्योग ,धातुएँ
|
खनिज ,इमारतें ,
अग्नि का प्रयोग
|
करने वाले व्यवसाय ,सैन्य सामान
|
के सप्लायर,आयुध फैक्टरियां , मशीन,
|
,टूल्स,
सर्जन ,दाँतो के क्लीनिक ,नाई
|
की दुकानें ,केमिस्ट,अौषधिया, रसायन,
|
प्रॉपर्टी डीलर ,बिल्डर्स ,इमरती सामान
|
अस्त्र -शस्त्र खेलकूद का
सामान।
|
आवासीय ,व्यावसायिक या औद्योगिक किसी भी प्रकार के भवन के लिए भूमि मूलभूत आवश्यकता है
और उसके चयन में अत्यंत सावधानी बरतनी चाहिए। भूमि एक जीवंत तत्त्व है। यही वह आधार
है जिस पर भवन बनता है। भूमि के गुण और दोषों का भवन और उसमें रहने वालों पर गहरा प्रभाव
पड़ता है। औद्योगिक कार्य के लिए भूमि चयन करते समय बहुत सी बातों को धयान में रखना
चाहिए। भूमि के गुण-दोषों का आकलन निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए।
1. #दिशाभिमुखता
२. #मिटटी की गुणवत्ता
3.#भूखंड का आकर
4. #भूमि का आकर
5. #भूखंड के समीपवर्ती मार्ग
6. #वीथी शूल
7. #भूखंड में कटाव
8.#भूखंड में विस्तार
9. #भूखंड के कोने के कोण
10. #परिवेश
11. #लोकेशन
इन सभी लक्षणों का विचार करके ही भूखंड लेना चाहिए। आजकल के समय में वासे तो भूमि
मिलना मुश्किल हो गया हैं वास्तु के अनुसार सही भूखंड मिलना तो और भी मुश्किल है। अतः
बेहतर होगा की भूखंड के गुण दोषों का आकलन करके दोषो की तुलना मैं गुण अधिक हो तो भूखंड
लिया जा सकता है।
भूमि खरीदते समय सभी लक्षणों को ध्यान मैं रखना चाहिए।
उद्योग और कारखानें किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था
का मूल आधार होते है। औद्योगिक वृद्धि का प्रभाव केवल राष्ट्र की वित्तीय स्थिति पर
ही नहीं होता बल्कि यह छेत्र लाखों की आजीविका का भी स्रोत्र होता है। मालिकों ,कामगारों की खुशहाली उद्योग
की क्षमता एवं प्रगति पर निर्भर करती है। किसी भी उद्योग का मुख्या लक्ष्य चाहे वह
मशीनरी उद्योग हो अथवा लघु उद्योग ,अलग -अलग प्रकार की वस्तुओं का अधिकतम उत्पादन तथा अधिकाधिक मुनाफा कमाना है। अतः
उद्योग का लय-आऊट बड़े ध्यान से बनाना चाहिए।
किसी उद्योग को चलाने में मशीनों और श्रमशक्ति के बीच समवन्य स्थापित करना महत्वपूर्ण है। प्रकिर्या और प्रवाह के बीच सामंजस्य
स्थापित करने मैं वास्तु महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वास्तु के अनुरूप योजनाबद्ध
तरीके से निर्मित उद्योग व् फैक्टरियां सफल रहती है तथा मुनाफा कमेटी है। वास्तु सम्मत
निर्माण से कामकाजी माहौल ,कार्य की गुणवत्ता ,उत्त्पादन की गुणवत्ता तथा लाभ इन पहलूओं पर सकारात्मक प्रभाव होता है ,वास्तु सम्मत स्थापनाओं में
समय -समय पर उत्त्पन्न होने वाली समस्याओ का
आसानी से हल निकला जा सकता है। इसके विपरीत जो उद्योग फैक्ट्री तथा मिलें वास्तु सिधान्तो
के अनुरूप निर्मित नहीं होती ,उन्हें हमेशा श्रमिको से सम्बंधित ,वित्तीय या अन्य प्रकार की समस्याओ का सामना करना पड़ता है। किसी
उद्योग को प्रभावी एवं निर्बाध रूप से चलाने के लिए वास्तुशास्त्र के दिशानिर्देशों
का पालन करके रुग्न उद्योग/फैक्ट्री को समृद्ध बनाया जा सकता है।
#सुनियोजित #विन्यास
एक भली-भांति योजनाबद्ध औद्योगिक छेत्र जहाँ सभी मूलभूत सिविल सुविधाएँ उप्लब्ध
हों ,उत्पादन क्षमता की
वृद्धि में सहायक होता है। फैक्ट्री के सामने फालतू सामान का जमाव ,कीचड़ और उद्योग से निकलने वाली गंदगी का ढेर नहीं
होना चाहिए। औद्योगिक छेत्र के आसपास के माहौल तथा सड़कों ,मार्गों की प्रकाश व्यवस्था औद्योगिक छेत्र के भीतरी
परिसरों का रखरखाव तथा साफ-सफ़ाई पर धयान देना चाहिए। औद्योगिक परिसर की साफ-सफाई और सौंदर्यीकरण से संपूर्ण
वातावरण में शुभ ऊर्जा का संचार होगा .इससे सभी उद्यमियों श्रमिको और उद्योग से जुड़े सभी कर्मचारियों को शारीरिक
तथा मानसिक स्वस्थ्य ,लाभ , सुख और समृद्धि की
प्राप्ति होगी।
#भूमि का चयन
-
भूमि या भूखंड का चयन करते समय विशेष ध्यान रखें। भूखंड या तो वर्गाकार हो या आयताकार
हो। भूखंड के अशुभ विस्तार या कटाव को निर्माण से पहले सुधार लें। उत्तर-पूर्व दिशा
में भूखंड का विस्तार सुबह होता है। भूमि का चयन करते समय वास्तुशास्त्र के सभी नियमों
दिशानिर्देशों का पालन जरूर करना चाहिए।
#ढलान –
भूखंड की ढलान उत्तर या पूर्व की होनी चाहिए।
यदि उत्तरी और पूर्वी हिस्सा ऊंचा है तथा दक्षिण और पश्चिम हिस्सा निचा है तो
जरुरी है की पहले भूमि को समतल बनाया जाये।
फैक्ट्री के दक्षिण या पश्चिम की और ढलान से उत्त्पादन ,वृद्धि तथा प्रगति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनावश्यक
खर्चे बढ़ जाते है ,मशीनों का पूरा इस्तेमाल नहीं होता। इससे धन की कमी रहती है तथा श्रमिको की समस्याएँ
दिन -प्रतिदिन बढ़ती जाती है। उत्तर –पूर्व में ढलान होना अत्यंत
शुभ है। इससे धन-सम्पदा ,वैभव का आगमन एवं वृद्धि होती है।
#भूखंड में विस्तार -
दो बड़े भूखंडों के बीच छोटा भूखंड न ख़रीदे। भूखंड के मालिक को दक्षिण की और के
भूकंद को खरीद कर विस्तार नहीं करना चाहिए। दक्षिण की और भूखंड बढ़ाने से नुकसान होगा
तथा यह भूमि का टुकड़ा दुर्भाग्यपूर्ण होगा। यदि उत्तर दिशा की और भूकंद खरीद कर विस्तार
किया जाये तो यह शुभ होगा इसके परिणाम शुभ होंगे क्योंकि भूमि का विस्तार धनप्रदायक
उत्तर दिशा की और हो रहा है।
#चारदीवारी तथा #गेट
-
चारदीवारी के निर्माण से भूखंड में एक सशक्त ,जाग्रत और ऊर्जावान मंडल का निर्माण होता है। यह जरुरी
है की निर्माण कात्या आरम्भ करने से पूर्व आहाते की दीवारें बनाई जाएँ।
भूखंड के अशुभ विस्तार या कतन को सुधरकर आहाते की दीवारों का निर्माण करना चाहिए।
दक्षिण और पश्चिम दिशाओं की दीवारें उत्तरी और पूर्वी दिशाओं की दीवारों की तुलना में
अधिक मोटी और ऊँची होनी चाहिए। आहाते के द्वार उत्तर-पूर्व दिशा के उत्तर या पूर्व
में ,दक्षिण-पूर्व के
दक्षिण या उत्तर-पश्चिम के पश्चिम में होना चाहिए। दक्षिण नेऋत्य , पश्चिम नेऋत्य , पूर्वी आग्नेय या उत्तरी वायव्य
में आहाते के गेट न बनाये।
वास्तुशास्त्र के अनुसार कुंए ,बोरवैल ,भूमिगत पानी के टैंक ,तालाब ,तरन ताल आदि पानी
के श्रोत्र भूखंड के उत्तर-पूर्व में होने चाहिए। सुबह के सत्य की पारा-बैंगनी किरणें
उत्तर-पूर्व की और पड़ती है। पानी के साथ मिलकर सुबह के सूरज की किरणें कई गुणा लाभप्रद
हो जाती है।
इन किरणों का लाभ उठाने के लिए उत्तर-पूर्व का स्थान खुला होना चाहिए तथा इसी दिशा
में पानी का श्रोत्र होना चाहिए ,दूसरी और दक्षिण-पश्चिम में पड़ने वाली अवरक्त किरणें नुकसानदायक होती है। यदि दक्षिण-पश्चिम
में पानी रखा जाये तो पानी के साथ मिलकर इन किरणों का नुकसानदायक देह प्रभाव अधिक प्रखर
हो जाता है। इसलिए उचित होगा की दक्षिण तथा पश्चिम में पेड़ -पौधे हों ऊँची संरचना हो।
ईमारत के दक्षिण-पश्चिम में पानी का श्रोत्र नहीं होना चाहिए।
#भूमिगत जल का टैंक
जैसा की पहले ही उल्लेख किया जा चूका है ,पानी का श्रोत्र उत्तर तथा उत्तर-पूर्व में होना चाहिए
,इस बात का धयान रखा
जाये की ये कोणसुत्र पर न हो अर्थात भूखंड के दक्षिण-पश्चिम कोने को भूखंड के उत्तरी
-पूर्वी कोने से जोड़ने वाली रेखा पर स्थित न हो ,इस रेखा तथा मुख्या ईमारत के उत्तर-पूर्वी कोने को
भूखंड के उत्तर-पूर्वी कोने को जोड़ने वाली रेखाओं पर कुंए की खुदाई नहीं होनी चाहिए।
कोणसुत्र बहुत महत्वपूर्ण रेखाएं है तथा इन पर कोई कील। खूंटी ,गड्डा आदि नहीं चाहिए।
यह बोरिंग पैदल पथ के बीच में नहीं होना चाहिए। भूमिगत पानी का स्रोत्र वहां के
मार्ग में नहीं होना चाहिए। किसी संरचना के मध्य या ब्रहमस्थान पर कुआँ बनाना निषिद्ध है। शुभ मुहूर्त में कुएँ की
खुदाई शुरू करनी चाहिए। दक्षिण-पूर्व में जल-स्रोत्र बनाने से उत्त्पादन स्टार तथा व्यवसाय की लाभप्रद
मैं कमी आती है। कामगारों में असंतोष रहता है। बड़े पैमाने पर आर्थिक हानि हो सकती है।
दक्षिण या दक्षिण-पश्चिम में पानी का स्रोत्र होने से अनावश्यक विवाद ,दुर्घटनाये तथा धन की हानि
होती है।
भूखंड के सामने की दिशा में शुभ पद में मुख्या द्वार बनाया जा सकता है। यदि भूखंड
पश्चिम दिशा की और है तो उत्तर पश्चिम के शुभ पदों में मेन गेट होना चाहिए। दक्षिण
-पश्चिम में मुख्या द्वार कदापि नहीं होना चाहिए। मुख्या प्रवेश द्वार विभिन्न दिशाओं
में सुबह पदों उत्तर-पूर्व से पूर्व की और २ ,३ नंबर के पदों पर ,दक्षिण-पूर्व से दक्षिण की तरफ ११,१२ नंबर के पदों पर ,दक्षिण-पश्चिम से पश्चिम की
तरफ २०,२१ नंबर के पदों
पर ,उत्तर-पश्चिम से
उत्तर की तरफ २७,२८,२९ नंबर के पदों
पर अत्यंत शुभ होते है।
#ब्रह्मास्थान -
भूखंड का मध्य स्थल भ्रम स्थान कहलाता है। यह इक्यासी पद मंडल के मध्य नौ वर्ग
का स्थान होता है। ब्रह्म स्थान वास्तु की नाभि के चारों ओर का छेत्र होता है।
भूखंड के बीचों बीच ,खम्बा ,गड्ढा ,या कुंआँ कदापि नहीं होना चाहिए। ब्रह्मस्थान और भूखंड के कोंणसुत्र
अर्थात ऊर्जा रेखाओं पर निर्माण कार्य करने
,खम्बे या दीवार बनाने से बचना
चाहिए। ब्रह्मस्थान की लाभकारी शक्तियों को बढ़ाने के लिए इस छेत्र को खुला और भररहित
रखना चाहिए। ब्रह्मस्थान को साफसुथरा रखना चाहिए। ब्रह्मस्थान पर कोई मशीनरी न लगाये।
भवन योजना और निर्माण कार्य सम्बन्धी दिशानिर्देश -
भूखंड के दक्षिण -पश्चिम में मुख्या ईमारत बनानी चाहिए और उत्तर-पूर्व में अधिक
खुला स्थान छोड़ा जाना चाहिए। एल शेप अथवा यू
शेप के अनेक ब्लाक वाली इमारतों के
लिए यह धयान रखा जाये कि उत्तर और पूर्व दिशाओं में खुला स्थान अधिक छोड़ा जाएं।
भवन निर्माण करते समय निम्नलिखित कुछ महत्वपूर्ण सुझावों को धयान में रखें।
१ भवन के दक्षिण दिशा की ऊंचाई उत्तर दिशा
की तुलना में अधिक होनी चाहिए।
२ ईमारत का पश्चिमी हिस्सा पूर्व की तुलना
में अधिक ऊँचा होना चाहिए ,यह स्थिति वृद्धि और प्रगति के अनुकूल हैं।
३ चहुमुखी स्मृद्धि और उत्तम स्वस्थ्य
के लिए दक्षिण-पश्चिम दिशा में भवन की उँच्चाई उत्तर-पूर्व के अपेक्षा अधिक होनी चाहिए।
यदि पूर्वोत्तर हिस्सा अधिक ऊँचा हो तो स्वामी का स्वस्थ्य ख़राब रहेगा और समृद्धि में
कमी आएगी।
४ पूर्व और उत्तर दिशा का हिस्सा खुला
होना चाहिए और ईमारत की दक्षिण तथा पश्चिम हिस्से की तुलना में अधिक प्रकाशमय होना
चाहिए।
५ प्रशासनिक कार्यालय उत्तर में या पूर्व में स्थित होना चाहिए। दक्षिण-पश्चिम में स्थित फैक्ट्री
की मुख्या ईमारत की तुलना में प्राशासनिक कार्यालय की ईमारत काम ऊँची होनी चाहिए।
६ उत्तर-पूर्वी कोना न तो बंद होना चाहिए और न ही कटा होना चाहिए।
७ स्टाफ क्वार्टर दक्षिण-पूर्व या उत्तर -पश्चिम दिशा में होने चाहिए।
८ शौचालय भूखंड के उत्तर-पश्चिम या दक्षिण
-पूर्व छेत्र में हो सकते हैं।
शौचालय भूखंड के मध्य भाग ,उत्तर-पूर्वी अथवा दक्षिण-पश्चिमी छेत्र में कदापि नहीं होने चाहिए।
९ कुंए ,बोरवैल वाटर पंप या भूमिगत पानी के टैंक उत्तर-पूर्वी हिस्से में होने चाहिए।
१० ब्रहमस्थान में सेप्टिक टैंक ,कुंए ,बोरिंग ,शौचालय ,भरी मशीनरी इत्यादि नहीं होने चाहिए।
#ओवरहेड वाटर टैंक -
पानी के ओवरहेड टैंक ईमारत के पश्चिम या दक्षिण-पश्चिम जोन में होना चाहिए। यह
दक्षिण-पश्चिम ,उत्तर-पूर्व की धुरी पर न रखें जाएँ। छत पर पानी का टैंक प्लेटफॉर्म बनाकर रखा
जाये। दक्षिण-पश्चिम जोन में रखा ओवर हेड टैंक न तो टपकना चाहिए और न ही पानी बहना
चाहिए।
ओवरहैड वाटर टैंक ईमारत के ब्रह्मस्थान या मध्य में कदापि न रखना चाहिए।
#सेप्टिक टैंक – सेप्टिक टैंक दक्षिण-पूर्व ,उत्तर-पूर्व या दक्षिण-पश्चिम कोनो में नहीं होना चाहिए। सेप्टिक टैंक
का पिट भूखंड के वायव्य कोण के उत्तर या पश्चिम दिशा में बनाया जा सकता है।
सेप्टिक टैंक चारदीवारी ,नींव या ईमारत की दीवार से सटाकर नहीं बनाना चाहिए। सेप्टिक टैंक की ऊंचाई भूखंड
की सतह तक होनी चाहिए ,प्लिंथ स्टार तक नहीं। पाइप तथा नाली उत्तर या पश्चिम में होनी चाहिए। सेप्टिक
टैंक पूर्व-पश्चिम की और अधिक लम्बा तथा दक्षिण-उत्तर में छोटा होना चाहिए।
#उत्पादनकेंद्र -
उद्योग का उत्त्पादन केंद्र भूखंड के दक्षिण-पश्चिम हिस्से में होना चाहिए। उत्तर
तथा पूर्व दिशाओं में अधिक खुला स्थान छोड़े। उत्त्पादन केंद्र वर्गाकार या आयताकार
होना चाहिए। इस ब्लॉक के चारों और गलियारा छोड़ें। इससे केवल आने जाने में ही सुविधा
नहीं होती बल्कि ऊर्जा शक्ति का भी प्रवाह अनावरूद्ध तथा जाग्रत रहता है। उत्त्पादन
खंड के दक्षिण और पश्चिम में भारी मशीनरी लगाई जाये और उत्तर और पूर्व में हलकी मशीने
होनी चाहिए। उत्त्पादन खंड के दक्षिण-पूर्व में बिजली की मोटर ,मेन स्विच बोर्ड आदि होने चाहिए।
कच्चा माल ,भारी मशीनरी दक्षिण
या दक्षिण-पश्चिम में होनी चाहिए ,यह जरुरी है कि उत्तर और पूर्व दिशा के छेत्र को साफ़-सुथरा तथा रोशनीदार रखा जाएं।
#प्रशासनिक खंड -
प्रशासनिक खंड फैक्ट्री की उत्तर दिशा में होना चाहिए। उत्त्पादन खंड की ऊंचाई प्रशासनिक ब्लॉक से अधिक
होनी चाहिए। फैक्ट्री इस प्रकार से बनी होनी चाहिए कि दक्षिण दिशा तथा पश्चिम दिशा
के हिस्से अधिक ऊँचे हों। यदि छतें ढलवदार
हों तो ढलान पश्चिम से पूर्व की ओर तथा दक्षिण से उत्तर की ओर होना चाहिए। ढांचा आहाते
की दीवारों से सटा हुआ न हो।
फैक्ट्री के कार्यालय या प्रशसनिक खंड का विन्यास कार्यालय पर लागु होने वास्तु
नियमों के अनुरूप होना चाहिए। अध्यक्ष , निदेशक ,वरिष्ठ अधिकारीयों के बैठने के जगह प्रशसनिक
खंड के दक्षिण -पश्चिम में होना चाहिए। केशियर , लेखाकार , के कमरे उत्तर में होना चाहिए तथा अनुसन्धान और विकास
विभाग के बैठने की जगह उत्तर-पूर्व में होना चाहिए। बिक्री कार्य से जुड़े स्टाफ के
बैठने की व्यवस्था उत्तर-पश्चिम छेत्र में होनी चाहिए। कैंटीन और पैंट्री प्रशसनिक
खंड के दक्षिण-पूर्व में हों।
कारखाने की सामान्य रूपरेखा -
फैक्ट्री की आंतरिक योजना में भी मूलभूत वास्तु दिशानिर्देशों का पालन किया जाना
चाहिए। भरी मशीनरी दक्षिण और पश्चिम में लगायी
जाये। फैक्ट्री के दक्षिण-पूर्वी भाग में बॉयलर ,ट्रांसफार्मर ,विधुत उपकरण ,भट्टियां ,एसिड टैंक , कैंटीन आदि की व्यवस्था हो सकती हैं। उत्तर -पश्चिम
या दक्षिण -पूर्व में रसायनों , सेप्टिक टैंक , जल उपचार , सम्बन्धी संयंत्र होने चाहिए। आहाते की दीवार से एक दो फ़ीट दूर ट्रांसफार्मर ,
भट्टियां ,एसिड टैंक आदि होने चाहिए।
उत्तर-पूर्व तथा दक्षिण-पश्चिम में अग्नि से सम्बंधित उपकरण आदि होने से धन हानि ,फैक्ट्री बंद होना या प्रगति
का अभाव जैसी विभिन्न समस्याएं उत्त्पन्न होती हैं।
फैक्ट्री कार्यालय में कैशियर ,लेखाकार , तथा अनुसन्धान और विकास विभाग उत्तर-पूर्वी छेत्र में होने चाहिए। अध्यक्ष ,
निदेशक ,महाप्रबंधक , सुपरवाइजर , के केबिन प्रशसनिक ईमारत के
दक्षिण तथा दक्षिण-पश्चिमी छेत्र में होने चाहिए।
फैक्ट्री के उत्तर-पश्चिम में प्रसाधन कक्ष , अतिथि कक्ष , सर्वेंट क्वार्टर , तैयार उत्त्पादों
का स्टोर , गैराज , पैकिंग यूनिट होनी चाहिए। तैयार माल इसी छेत्र में रखा जाये।
उत्तर-पश्चिम के पश्चिम भाग में डिलीवरी के लिए तैयार माल की लदाई और निकासी के लिए गेट होना चाहिए। इससे तैयार माल की
शीघ्र बिक्री में सहायता मिलेगी तथा धन का सहज , निरंतर आगम होगा।
पार्किंग के लिए जगह भूखंड के उत्तर या पूर्व में होनी चाहिए।
उत्तर पूर्व का हिस्सा खुला ,साफ़ सुथरा रहना चाहिए और किसी
भी प्रकार का कूड़ा-करकट ,औद्योगिक अपशिस्ट पदार्थ या
व्यर्थ वस्तुऍ यहाँ इकट्ठा न होने दें। भौमिगत
वाटर टैंक या बोरिंग उत्तर-पूर्व मैं होनी चाहिए। फैक्ट्री के ईशान कोण को दोष मुक्त
रखने से आर्थिक तथा वित्तीय सुदृढ़ता तथा श्रमिकों और कर्मचारियों के साथ उत्तम सम्बन्ध
बनाये रखने में सहायता मिलेगी।
ओवर हैड वाटर टैंक मुख्या ईमारत या भूखंड की दक्षिण -पश्चिम दिशा के पश्चिमी हिस्से
में होना चाहिए। भर तोलने की मशीन आहाते की दीवार से कुछ दूरी पर उत्तर या पूर्व दिशा
में होनी चाहिए।
उत्पादन प्रवाह
उत्त्पादन केंद्र के दक्षिण -पश्चिम भाग में भारी मशीनरी लगाई जानी चाहिए। और उत्तर तथा पूर्व में हलकी मशीनरी
लगनी चाहिए। इससे उत्त्पादन कार्य सुचारू रूप से होगा .vaastu अनुसार उत्त्पादन प्रवाह हमेशा
दक्षिण से उत्तर की और होना चाहिए। धातु से सम्बंधित वस्तुओं का प्रवाह पश्चिम से पूर्व
की और होना चाहिए। कच्चा माल उत्त्पादन खंड के दक्षिण -पश्चिम हिस्से में रखा जा सकता
है। प्रिक्रियागत उत्त्पादों एवं आधे तैयार उत्त्पाद पश्चिम हिस्से के मध्य भाग मैं
रखे जा सकते है और डिलीवरी के लिए तैयार माल उत्तर -पश्चिम में रखे जाने चाहिए। यदि कच्चा माल मशीन के एक हिस्से
से भरा जाता है और दूसरे हिस्से से तैयार माल बहार आता है तो ऐसी स्तिथि में मशीनरी
का उत्त्पाद प्रवाह दक्षिण-पश्चिम से उत्तर -पश्चिम की और होना चाहिए। मशीनरी इस प्रकार
रखी जाये कि कच्चा माल का अंतः प्रवाह दक्षिण-पश्चिम दिशा की ओर से हो और उत्त्पाद
उत्तर -पश्चिम दिशा की ओर से बहार आये इससे उत्त्पाद में स्थिरता और उत्त्पादों की
तीव्र गति से बिक्री में सहायता मिलती है।
स्टॉफ क्वार्टर
कामगारों के स्टॉफ क्वार्टर पश्चिम और उत्तर -पश्चिम के बीच होने चाहिए अथवा उत्तर
और उत्तर-पश्चिम के बीच होने चाहिए।
वृथा प्रबंधक स्टॉफ के लिए आवास व्यवस्था दक्षिण और दक्षिण-पूर्व के बीच हो सकती
है। उत्तर-पूर्व में स्टॉफ क्वार्टर नहीं होने चाहिए क्योंकि इससे इस छेत्र की ओर दबाव
बढ़ जाएगा ,इससे अलावा स्टॉफ
क्वार्टरों के साथ शौचालयों की व्यवस्था के कारन भूखंड का सर्वाधिक शुभ छेत्र प्रदूषित
होगा। भूखंड के दक्षिण-पश्चिम में भी कामगारों के क्वार्टर नहीं होने चाहिए क्योंकि
इससे कामगार दबंग और मनमानी करने वाले हो जायेंगे।
गार्ड रूम
सुरक्षा कार्मिक इस प्रकार तैनात किये जाएं जिससे उनका मुख हमेशा पूर्व या उत्तर
दिशा की रहे। चोरी तथा घुसपैठ जैसी समस्याओं के सम्बन्ध में दक्षिण-पूर्व में विद्यमान
वास्तु दोषो का धयान रखना चाहिए।
पूर्व दिशा मैं चौथे पद पर स्थित द्वार इंद्रा कहलाता है। मुख्या प्रवेश द्वार
के दायीं और गार्ड रूम हो सकता है ताकि सुरक्षा स्टॉफ का मुँह उत्तर की और रहें।
उत्तरी दिशा की ओर तीसरे और चौथे पद पर मुख्या द्वार भल्लाट कहलाता है। भल्लाट
के बायीं और गार्ड रूम हो सकता है ताकि सुरक्षा कार्मिक का मुँह पूर्व की ओर हो।
पश्चिम दिशा में चौथे या पांचवे पद पर मेन गेट पुष्पदंत तथा वरुण कहलाता है। प्रवेश
के बायीं और गार्ड रूम हो ताकि सुरक्षा कार्मिक का मुँह उत्तर की और हो।
दसखीन दिशा में तीसरे और चौथे पद में मुख्या प्रवेश द्वार वितथ और बृहत्क्षत कहलाता
है। प्रवेश द्वार के दायीं और गार्ड रूम हो सकता है ताकि सुरक्षा कार्मिक का मुँह पूर्व
दिशा की और हो।
#उद्योग #समस्याएं , #समाधान
#वास्तुशास्त्र के समग्र अवधारणा जल , वायु ,आकाश ,पृथ्वी ,और अग्नि इन पांचो तत्वों के बीच संतुलन तथा समन्वय स्थापित
करना है। सभी दिशाएं चूंकि अलग-अलग तत्वों की सूचक है अतः विद्यमान समस्या के प्रति
गहराई से विचार किया जाये तो इसकी उत्त्पत्ति के दिशा का पता चल सकता है। विभिन्न समस्याएं
किसी विशिष्ट तत्त्व के असंतुलन की ओर संकेत करती है। उदाहरण के लिए यदि धन से सम्बंधित
समस्या है तो उत्तर और उत्तर-पूर्वी हिस्से की जांच की जनि चाहिए ,यदि कामगारों से सम्बंधित समस्या
है तो दक्षिण-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम की जांच की जानी चाहिए। माल की धीमी बिक्री के
लिए उत्तर-पश्चिम , कानूनी मुद्दो के लिए दक्षिण-पूर्व ,दिवालियापन या फैक्ट्री बंद होने जैसी समस्याओं के लिए उत्तर-पूर्व,केंद्र और दक्षिण -पश्चिम के
छेत्रों की जांच की जनि चाहिए।
उत्तर-पूर्वी छेत्र में कोई भी त्रुटि उत्त्पादन और प्रबंधन की गुणवत्ता पर विपरीत
प्रभाव डालती है। बुद्धिमत्ता और उत्त्पाद में गुणवत्ता की कमी के लिए भूखंड और िममरत
के उत्तर -पूर्वी हिस्से की जांच की जानी चाहिए। उत्तर-पूर्वी छेत्र में पायी जाने वाली वाली त्रुटियाँ
किसी उद्योग की प्रगति और स्मृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। वास्तु के अनुसार
समृद्धि और सफलता की कामना करने वाले उद्योगपतियों को भूखंड और भवन के ईशान कोण की
सावधानीपूर्वक रक्षा करनी चाहिए। इसके लिए निम्नलिखित नियमों का धयान रखें –
१ . उत्तर-पूर्वी दिशा में शौचालय कदापि नहीं होने चाहिए। इससे धन और यश दोनों
की हानि होती है।
२ उत्तर-पूर्वी कोने में कटाव होने से उत्त्पाद आउटडेटिट पद सकता है। परिणामस्वरूप
दिवालियापन की स्थिति आ सकती है।
३ उत्तर-पूर्वी दिशा में भारी वजन होने से नए विचारों और नयी सोच में बाधा उत्तपन्न
होगी।
४ यदि उत्तर-पूर्वी हिस्सा सबसे जयादा ऊँचा है तो इससे अपयश मिलेगा।
५ उत्तर-पूर्वी दिशा में ओवर हेड वाटर टैंक से प्रगति में बाधा आती है।
६ उत्तर-पूर्वी दिशा में जनरेटर से आग आदि दुर्घटना का अंदेशा रहता है।
#उद्योग के लिए #वास्तु सम्बन्धी महत्वपूर्ण परामर्श
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१ उत्तर-पूर्व में फव्वारे ,पानी के तालाब आदि बनाये।
२ यदि भूखंड का ढलान उत्तर-पूर्व की और हो तथा बारिश का पानी भूखंड के उत्तर-पूर्वी
भाग के और बहता हो तो निर्मित उत्त्पादो की गुणवत्ता बाद जाएगी।
३ उत्तरी कोना साफ़-सुथरा रखे तथा छोटे आकार के गमले लगाकर या उद्यान लगाकर इसे
खूबसूरत बनाया जा सकता है।
४ मुख्या प्रवेश द्वार शुभ पदों में होना चाहिए।
५ तैयार माल के नमूने या स्टॉक उत्तर-पश्चिम दिशा में रखे जाएँ। इससे तैयार उत्त्पादों
की तीव्र गति से आवाजाही और धन के निर्बाध आगम में सहायता मिलेगी।
६ गेट और दरवाजे जीर्ण-शीर्ण अवस्था में बिना पेंट-पोलिश के नहीं होने चाहिए।
७ दक्षिण , पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम भाग उन्नत होने से कारोबार
में स्थिरता और सभी कर्मचारियों का स्वस्थ्य उत्तम होगा।
८ यदि एल या यू आकर में फैक्ट्री बनानी हो तो यह ध्यान रखें की भूखंड का उत्तर
और पूर्वी हिस्सा खुला हो
९ मशीनों कीं मरम्मत के लिए वर्कशॉप पश्चिम ,पूर्व या दक्षिण-पूर्व में होनी चाहिए।
१० असेम्बलिंग तथा पैकिंग की इकाइयां उत्तर ,पूर्व या वायव्य में हो सकती है।
११ अनुसन्धान और विकास इकाईयां या नए उत्त्पाद विकसित करने वाले विभाग पूर्व या
उत्तर में हो सकते हैं।
१२ धात्विक उत्त्पादों के सन्दर्भ में उत्त्पादन प्रवाह पश्चिम से पूर्व की और
होना चाहिए तथा धातु से अलग उत्त्पादों के सम्बन्ध में दक्षिण से उत्तर की और होना
चाहिए।
१३ सुरक्षा स्टाफ का मुख पूर्व या उत्तर की और होना चाहिए।
१४ कूड़ा-करकट या जंक पदार्थ मुख्या द्वार से नजर नहीं आने चाहिए। भूखंड के उत्तरी-पूर्वी
हिस्से में साफ़-सफाई और उत्तम प्रकाश व्यवस्था किसी भी उद्योग की सफलता के लिए बहुत
महत्वपूर्ण हैं।
१५ सफाई और उत्तम प्रकाश व्यवस्था के नियम सभी कार्य छेत्रों/स्टाफ छेत्रों पर लागु होते हैं क्योंकि इससे सकरात्मक सोच और
कार्यक्षमता में वृद्धि होती हैं।
१६ नियोक्ता और कर्मचारी के बीच सम्बन्ध बेहतर बनाये रखने के लिए उचित होगा कि
भूखंड के ईशान कोण में या मध्य भाग में मंदिर या योग/धयान केंद्र बनाया जाये। स्टॉफ
के सभी सदस्य ,मजदूर और कार्यपालक बिना किसी भेदभाव के यहाँ धयान -अर्चना कर इस स्थान की सकरात्मक
ऊर्जा को ग्रहण करें। इससे प्रबंधक वर्ग और कर्मचारियों की आपस की दूरी खत्म हो परस्पर
सहयोग और सदभावना के भावना जाग्रत होती है जोकि सफलता का मूलमंत्र है।
१७ सभी जंक ,कूड़ा-कबाड़ा ,अनावश्यक और अनुपयोगी चीजें आहाते से हटाते रहें। साल में एक बार के बजाये समय
-समय पर रद्दी सामान हटा या बेच देना चाहिए।
मशीनों का अत्यधिक शोर फैक्टरियों के आम समस्या है। लम्बे समय तक अधिक शोर-शराबे में काम करने से सिरदर्द
तथा तंत्रिका प्रणाली सम्बन्धी रोग हो सकते है। यदि ध्वनि प्रदूषण स्तर को कम करने
या इस पर काबू पाने के प्रयास किए जाएँ तथा इसके साथ-साथ कामगार और प्रबंधक वर्ग कुछ
समय के लिए नियमित रूप से धयान या योग साधना करें तो बहुत सुबह परिणाम सामने आएंगे
,फैक्ट्री के कार्यालय
और उच्चाधिकारियों के केबिन ध्वनिरोधी बनाना उपयुक्त रहेगा।
१९ फैक्ट्री का विन्यास सुव्यवस्थित होना चाहिए। गलियारे काफी चौड़े बनाये जाएँ
ताकि ट्रॉली और सामान आसानी से लाया ले जाया जा
सकें। टी जंक्सन पर कोई मशीन न रखी जाये ना ही वहां कोई कामगार कार्य करें।
२० बीम के ठीक निचे न तो कामगार कार्य करें और न ही मशीनें रखी जाएँ।
२१ पर्याप्त प्राकृतिक प्रकाश ,वातायन और सौहाद्पूर्ण माहौल का कार्य की गुणवत्ता और परिमात्रा पर सुखद प्रभाव
पड़ता है।
२२ आहाते की दीवारें और गेट हमेशा ठीक स्थिति में होने चाहिए। जहाँ तहाँ से टूटी
हुई चारदीवारी और उखड़ा हुआ सीमेंट अशुभ तथा सुरक्षा की दृष्टि से प्रतिकूल है।
२३ अततः सफलता के लिए आवश्यक है की उद्यमी यह भी सुनिश्चित
करें कि उनके घर का वास्तु उचित है या नहीं ,क्योंकि घर वह स्थान है जहाँ पर व्यक्तिगत ऊर्जा शक्ति
को आवेशित किया जा सकता है ,वास्तु पर आधारित घर इष्टतम स्तर तक सकरात्मक ऊर्जा प्रदान करता है जिससे हम सर्वोत्तम
ढंग से अपनी सामाजिक व्यावसायिक और वैयक्तिक जिम्मेदारियों तथा दायित्वों को पूरा कर
पाते हैं ।#Acharya Anil Verma
Master in #Astrology and #Vastu #Shastra
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