ओेउम्
मानव जीवन समस्याओं एवं संकटो की सत्य कथा है । जीवन मैं ऐसा कोई क्षण या स्थान नहीं हैं जब मनुष्य के सामने समस्या या संकट चुनौत्ती के रूप मैं खड़े न हो। राजा हो या रंक , ज्ञानी हो या अज्ञानी , भोगी हो या योगी ऐसा कोई नहीं जिसके जीवन मैं समस्याएं और संकट नहीं आते हों ।
ये संकट क्यों आते है?
दुःख की उत्पत्ति का मुख्य कारण है संचित कर्म। संचित कर्म के प्रभाववश मनुष्य ऐसी परिस्थितियों मैं फँस जाता है और प्रकृति व् काल का ग्रास बन जाता है। जब मृत्युकाल मैं आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करती है तब आत्मा सूक्षम शरीर मैं रहती है और साथ मैं रहते है उसके संचित कर्म। इन्ही संचित कर्मो के साथ जब आत्मा नया शरीर धारण करती है तो इन्ही संचित कर्मो को भोगती हैं , इन्ही संचित कर्मो की वजह से आत्मा को योनि मिलती है ,तब ये संचित कर्म प्रारब्ध कहलाते है। कर्म अच्छे या बुर कर्मो के श्रेणी मैं आते है। इनको भोगना अच्छा या बुरा भोगना ही योनि पाना हैं। शरीर धारण करने का कारण संचित कर्म ही हैं। संचित कर्मो को भोगना ही प्रारब्ध है और अब हम जो कर रहे है नया कर्म कर रहे है या करेंगे वे किर्यमाण कहलायेंगे।
अर्थात संचित , प्रारब्ध , और किर्यमाण ये तीन भेद कर्म के मने गए है।
ईश्वर के खातें मैं न देर है न ही अंधेर , न जमा है न घटा , जो हमने कर्म कर दिया जो तीर कमान से निकल गया वह हो गया और वो कर्म हमारे चित्त पर भर गया , जैसे कम्प्यूटर की फ्लॉपी मैं जमा हो गया , यह चित्त जो आत्मा के अंदर बसा होता है आत्मा के साथ सर्वदा रहता है , उस चित्त पर भरे गए सभी कर्मो को भोगना निश्चित है।
कर्म चाहे हमे पता भी नहीं हमे याद भी नहीं परन्तु चित्त कभी नहीं गलती करता सूक्षम से सूक्षम , जाने अनजाने मैं किये गए सभी कर्मो का रखरखाव वह भलीभांति रखता है । और इन सभी कर्मो को भोगे बिना कभी भी इनका क्षय नहीं होता। जीवात्मा कर्म करने मैं स्वतंत् होते हुए भी फल भोगने मैं परतंत्र है अर्थात स्वतंत्र नहीं है।
सुख -दुःख की उत्पत्ति के कारण प्रारब्ध , प्रकृति , परिस्थिति एवं काल ये चार कारण बतलाये गए हैं। प्रारब्ध कर्म का फल ही सुख-दुःख आदि है , इन प्रारब्ध कर्मो को परिणाम तक पहुचाने मैं प्रकृति और परिस्थिति सहायता करती है और काल (समय ) इस पूरी प्रकिर्या का सूत्रधार हैं ।
इन कारणों का विचार एवं निर्धारण ज्योतिष शास्त्र मैं किया जाता है। वैदिक ज्योतिष मैं योग , दशा और गोचर के द्वारा इन कारणों से जीवन मैं उत्पन्न होने वाले संकटो-दुख़ों का पूर्वानुमान किया जाता है। यह एक ऐसी विद्या है जिससे व्यक्ति या ब्रह्माण्ड के जीवन मैं कब-कब , कहाँ-कहाँ और क्या-क्या घटित होने वाला है ? इन सबको भली भांति जाना जा सकता हैं। इस शास्त्र का जीवन के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है की यह जीवन के सभी नकरात्मक और सकरात्मक का विचार करके उसकी सही जानकारी देता है। जीवन के सभी पक्षों का समय के पैमाँने पर विचार का उसके सही पूर्वानुमान की तकनीक बतलाने वाला ज्योतिष शास्त्र ने ईस्ट प्राप्ति व अनिष्ट परिहार के लिए पांच प्रकार के उपाए बताये है।
ज्योतिष शास्त्र ही एकमात्र ऐसा शास्त्र है जो अभीष्ट सिद्धि व अनिष्टों से बचाव के लिए या जीवन के सभी कष्टो के समाधान के लिए व अगले जीवन के लिए शुभकर्मो को करने , शुभ संचित कर्मो को जमा करके प्रारब्ध का निर्माण करने के लिए सटीक उपायों का प्रतिपादन करता है। ये पांच प्रकार निम्न है --
१. मंत्र २. रत्न ३. ओषधि ४. दान ५. ओषधि स्नान
ये उपाए दुखों की चिकित्सा के महत्वपूर्ण साधन है। व्यक्ति अपने भीतर सुप्त या लुप्त शक्तियों को जाग्रत कर उस शक्ति से सम्बन्ध बनाने वाला गूढ़ ज्ञान मंत्र शास्त्र कहलाता है। साधक अपनी लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ती इसके द्वारा कर सकता है। जीवन मैं कैसा भी संकट हो मंत्र साधना द्वारा इसका निश्चित और पक्का समाधान किया जा सकता हैं ।
मंत्र की अनेक धर्मो , सम्प्रदायों , ऋषियों और सदगुरुओं ने अनेको परिभाषाएँ दी हैं -
मंत्र के भी भेद बताये गए हैं -
वैदिक मंत्र , तांत्रिक मंत्र , शाबर मंत्र
मंत्र साधना के ऋषियों के अनुसार कोई अक्षर ऐसा नहीं जो मंत्र न हो और कोई ऐसी वनस्पत्ति नहीं जो ओषधि न हो। केवल आवश्यकता हैं अक्षर मैं निहित मंत्र शक्ति और वनस्पत्ति मैं विहित ओषधि मर्म को जानने की है। जब सदगुरु की कृपा से मर्म को जान लिया जाता हैं तब यह एक ही शब्द भली भांति जानने पहचानने और साधना मैं प्रयुक्त होने के बाद कामधेनु के सामान साधक की समस्त मनोकामनाओं को पूरा करता हैं।
मंत्र कोई साधारण शब्द नहीं है। वह दिव्या शक्ति का वाचक एवं बोधक है। दिव्या होते हुए नही उसका एक वाच्यार्थ होता है , वह ईस्टदेव से अभिन्न होने पर भी ईस्टदेव के स्वरुप का बोध कराता हैं।
मंत्र के विभिन्न अक्षर उसकी विभिन्न शक्तियों के रूप हैं। इनमे से प्रत्येक की स्वतंत्र शक्ति है। यह समग्र शक्ति मिलकर एक देवता के स्वरुप का संकेत देती हैं। मंत्र की शक्ति इतनी बलवान होती हैं की वह व्यक्त और अव्यक्त जगत को वष मैं रखने वाले देवताओं को भी अपने वशीभूत कर लेती हैं।
मानव जीवन समस्याओं एवं संकटो की सत्य कथा है । जीवन मैं ऐसा कोई क्षण या स्थान नहीं हैं जब मनुष्य के सामने समस्या या संकट चुनौत्ती के रूप मैं खड़े न हो। राजा हो या रंक , ज्ञानी हो या अज्ञानी , भोगी हो या योगी ऐसा कोई नहीं जिसके जीवन मैं समस्याएं और संकट नहीं आते हों ।
ये संकट क्यों आते है?
दुःख की उत्पत्ति का मुख्य कारण है संचित कर्म। संचित कर्म के प्रभाववश मनुष्य ऐसी परिस्थितियों मैं फँस जाता है और प्रकृति व् काल का ग्रास बन जाता है। जब मृत्युकाल मैं आत्मा भौतिक शरीर का त्याग करती है तब आत्मा सूक्षम शरीर मैं रहती है और साथ मैं रहते है उसके संचित कर्म। इन्ही संचित कर्मो के साथ जब आत्मा नया शरीर धारण करती है तो इन्ही संचित कर्मो को भोगती हैं , इन्ही संचित कर्मो की वजह से आत्मा को योनि मिलती है ,तब ये संचित कर्म प्रारब्ध कहलाते है। कर्म अच्छे या बुर कर्मो के श्रेणी मैं आते है। इनको भोगना अच्छा या बुरा भोगना ही योनि पाना हैं। शरीर धारण करने का कारण संचित कर्म ही हैं। संचित कर्मो को भोगना ही प्रारब्ध है और अब हम जो कर रहे है नया कर्म कर रहे है या करेंगे वे किर्यमाण कहलायेंगे।
अर्थात संचित , प्रारब्ध , और किर्यमाण ये तीन भेद कर्म के मने गए है।
ईश्वर के खातें मैं न देर है न ही अंधेर , न जमा है न घटा , जो हमने कर्म कर दिया जो तीर कमान से निकल गया वह हो गया और वो कर्म हमारे चित्त पर भर गया , जैसे कम्प्यूटर की फ्लॉपी मैं जमा हो गया , यह चित्त जो आत्मा के अंदर बसा होता है आत्मा के साथ सर्वदा रहता है , उस चित्त पर भरे गए सभी कर्मो को भोगना निश्चित है।
कर्म चाहे हमे पता भी नहीं हमे याद भी नहीं परन्तु चित्त कभी नहीं गलती करता सूक्षम से सूक्षम , जाने अनजाने मैं किये गए सभी कर्मो का रखरखाव वह भलीभांति रखता है । और इन सभी कर्मो को भोगे बिना कभी भी इनका क्षय नहीं होता। जीवात्मा कर्म करने मैं स्वतंत् होते हुए भी फल भोगने मैं परतंत्र है अर्थात स्वतंत्र नहीं है।
सुख -दुःख की उत्पत्ति के कारण प्रारब्ध , प्रकृति , परिस्थिति एवं काल ये चार कारण बतलाये गए हैं। प्रारब्ध कर्म का फल ही सुख-दुःख आदि है , इन प्रारब्ध कर्मो को परिणाम तक पहुचाने मैं प्रकृति और परिस्थिति सहायता करती है और काल (समय ) इस पूरी प्रकिर्या का सूत्रधार हैं ।
इन कारणों का विचार एवं निर्धारण ज्योतिष शास्त्र मैं किया जाता है। वैदिक ज्योतिष मैं योग , दशा और गोचर के द्वारा इन कारणों से जीवन मैं उत्पन्न होने वाले संकटो-दुख़ों का पूर्वानुमान किया जाता है। यह एक ऐसी विद्या है जिससे व्यक्ति या ब्रह्माण्ड के जीवन मैं कब-कब , कहाँ-कहाँ और क्या-क्या घटित होने वाला है ? इन सबको भली भांति जाना जा सकता हैं। इस शास्त्र का जीवन के साथ इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है की यह जीवन के सभी नकरात्मक और सकरात्मक का विचार करके उसकी सही जानकारी देता है। जीवन के सभी पक्षों का समय के पैमाँने पर विचार का उसके सही पूर्वानुमान की तकनीक बतलाने वाला ज्योतिष शास्त्र ने ईस्ट प्राप्ति व अनिष्ट परिहार के लिए पांच प्रकार के उपाए बताये है।
ज्योतिष शास्त्र ही एकमात्र ऐसा शास्त्र है जो अभीष्ट सिद्धि व अनिष्टों से बचाव के लिए या जीवन के सभी कष्टो के समाधान के लिए व अगले जीवन के लिए शुभकर्मो को करने , शुभ संचित कर्मो को जमा करके प्रारब्ध का निर्माण करने के लिए सटीक उपायों का प्रतिपादन करता है। ये पांच प्रकार निम्न है --
१. मंत्र २. रत्न ३. ओषधि ४. दान ५. ओषधि स्नान
ये उपाए दुखों की चिकित्सा के महत्वपूर्ण साधन है। व्यक्ति अपने भीतर सुप्त या लुप्त शक्तियों को जाग्रत कर उस शक्ति से सम्बन्ध बनाने वाला गूढ़ ज्ञान मंत्र शास्त्र कहलाता है। साधक अपनी लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ती इसके द्वारा कर सकता है। जीवन मैं कैसा भी संकट हो मंत्र साधना द्वारा इसका निश्चित और पक्का समाधान किया जा सकता हैं ।
मंत्र की अनेक धर्मो , सम्प्रदायों , ऋषियों और सदगुरुओं ने अनेको परिभाषाएँ दी हैं -
मंत्र के भी भेद बताये गए हैं -
वैदिक मंत्र , तांत्रिक मंत्र , शाबर मंत्र
मंत्र साधना के ऋषियों के अनुसार कोई अक्षर ऐसा नहीं जो मंत्र न हो और कोई ऐसी वनस्पत्ति नहीं जो ओषधि न हो। केवल आवश्यकता हैं अक्षर मैं निहित मंत्र शक्ति और वनस्पत्ति मैं विहित ओषधि मर्म को जानने की है। जब सदगुरु की कृपा से मर्म को जान लिया जाता हैं तब यह एक ही शब्द भली भांति जानने पहचानने और साधना मैं प्रयुक्त होने के बाद कामधेनु के सामान साधक की समस्त मनोकामनाओं को पूरा करता हैं।
मंत्र कोई साधारण शब्द नहीं है। वह दिव्या शक्ति का वाचक एवं बोधक है। दिव्या होते हुए नही उसका एक वाच्यार्थ होता है , वह ईस्टदेव से अभिन्न होने पर भी ईस्टदेव के स्वरुप का बोध कराता हैं।
मंत्र के विभिन्न अक्षर उसकी विभिन्न शक्तियों के रूप हैं। इनमे से प्रत्येक की स्वतंत्र शक्ति है। यह समग्र शक्ति मिलकर एक देवता के स्वरुप का संकेत देती हैं। मंत्र की शक्ति इतनी बलवान होती हैं की वह व्यक्त और अव्यक्त जगत को वष मैं रखने वाले देवताओं को भी अपने वशीभूत कर लेती हैं।
आचार्य अनिल वर्मा
ज्योतिष और वास्तु शास्त्र मास्टर डिग्री